सालेकसा महाराष्ट्र, 22 फरवरी से 25 फरवरी तक विश्व प्रसिद्ध कछारगढ़ जत्रा का शुभारंभ हो गया है, कछारगढ़ जत्र में छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, झारखण्ड, कर्नाटक, आंध्राप्रदेश, तेलगांना सहित 12 राज्यों से गोंडवाना समुदाय के लोग यहां उपस्थित होते है, प्रतिदिन यंहा जत्रा के समय 4 से 5 लाख लोग दर्शन करने पंहुचते है। कचारगढ़ एक पवित्र धार्मिक और प्राकृतिक स्थान है, जो सालेकसा तहसील में सालेकसा से 7 किमी की दूरी पर और गोंदिया ज़िला मुख्यालय से 55 किमी दूर पर स्थित है। गोंदिया-दुर्ग रेलवे मार्ग पर स्थित सालेकसा स्टेशन से, दरेकसा-धनेगाव मार्ग होते हुए लोग यहाँ पहुंचते हैं। दरेकसा मार्ग से कचारगढ़ सात किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह एक पवित्र धार्मिक स्थान है। कचारगढ़ गुफा, गोंडवाना के आदिवासियों का प्रमुख श्रद्धा स्थान है इसलिए गोंड जनजातियों के लोग यहाँ दूर-दूर से आते हैं। इस गुफा में अपने पूर्वज तथा आदिवासी गोंड धर्म के संस्थापक पारी कोपार लिंगो और माँ काली कंकाली के दर्शन करने के लिए विभिन्न राज्यों से आदिवासी कोयापूनेम (माघी पूर्णिमा) को कचारगढ़ गुफा में पहुंच जाते हैं ।
कचारगढ़ यात्रा का प्रारंभ
आज से 40 साल पहले गोंडी धर्माचार्य स्व. मोतीरावण कंगाली, शोधकर्ता एंव लेखक सुन्हेरसिंह ताराम, वरिष्ठ समाज सेवी एंव क्रांतिकारी दादा शीतल कवडू मरकाम ,एंव अन्य समाजसेवी जैसे लोग कचारगढ़ आए। यंहा आकर देखने पर पता चला कि हजारों वर्षो से कछारगढ़ गुफाओं में स्थानीय गोंड समुदाय पूजन कर रहा है,साथ ही जो इतिहास से परिचित थे वे भी दूर दराज से आते थे, खोजी दल ने पाया कि जो प्राचीन गोंडी भाषा में पूर्वज लोग कछारगढ़ का गीत गाते थे, वही पूरी रचना कछारगढ़ में आज भी वैसी ही है, गोंडवाना समाज की उत्पति के स्थान को देश का गोंडवाना समुदाय परिचित हो सके इस भाव से 1984 से यंहा राष्ट्रीय स्तर पर गोंडवाना समुदाय का जत्रा प्रारंभ किया गया, जंहा पहले स्थानीय लोग ही पूजा करते थे जत्रा प्रारंभ करने के बाद यंहा लाखों करोडो लोग दर्शन करने आते है। प्रतिवर्ष जनसंख्या बढ़ने के कारण महाराष्ट्र प्रशासन की ओर से सुरक्षा के कड़े प्रबंध किए जाते है, मेले में चिकित्सालय की व्यवस्था भी की जाती है। स्थानीय संगठन एंव अन्य प्रदेशों से आने वाले सामाजिक संगठनों के द्वारा खाना लंगर का भी इंतजाम किया जाता है। 1984 में गोंडी धर्म का झंडा फहराकर राष्ट्रीय स्तर पर कचारगढ़ यात्रा की शुरुआत की। आज, कचारगढ़ यात्रा में बहुत बडा जमावड़ा होता है और हर साल लगभग 15 लाख भक्त माघ पूर्णिमा पर इस यात्रा में सम्मिलित होते हैं। अपनी प्राकृतिक सुंदरता की वजह से यह पर्यटकों के आकर्षण का भी बड़ा केंद्र है। इसलिए, यहाँ पहुंचने वाले आदिवासी भक्तों के साथ अन्य पर्यटक भी बड़ी संख्या में आते हैं। कचारगढ़ मेले के दौरान हर साल गोंड समुदाय के लोग संगीत, गीत, नृत्य और रंगमंच के रूप में अपनी सांस्कृतिक परंपराओं को मनाते हैं और जीवित रखते हैं।
गोंडवाना समुदाय- गोंडी संस्कृति के रचनाकार पंहादी पारी कुपार लिंगो, संगीत सम्राट हीरासुका पाटा पाटालीर, 33 कोट सगापेन और 12 पेन ,सगापेनों को जन्म देने वाली माता कली कंकालीन की समाधी स्थल एंव अन्य देवी देवताओं के स्थल भी प्राकृतिक रूप से स्थित है तथा सल्ला गांगरा शक्ति यहाँ स्थित हैं। यह गोंडी धर्म की आस्था और विश्वास है कि समस्त देवीय शक्तियां आज भी यंहा उपस्थित है, गांड समुदाय का मानना है कि यंहा पर की गई मन्नत पूरी होती है!
कछारगढ़ की गुफाऐं एशिया की सबसे बड़ी प्राकृतिक गुफाऐं
कछारगढ़ की गुफाऐं एशिया की सबसे बड़ी प्राकृतिक गुफा माना जाता है। वैसे ये गुफाएं 518 मीटर ऊंचाई पर स्थित हैं। करीब 30 फुट ऊंची, 40 फुट चौड़ी और 30 फुट लंबी है छोटी गुफा के दाईं ओर की पहाड़ी में बड़ी गुफा स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। आगे चट्टान के शीर्ष पर, लगभग 50 फुट बड़ी गुफा का मुख दिखाई देता है। गुफा का अनुमान बाहर से नहीं लगाया जा सकता। अंदर जाकर ही गुफा के विस्तार का पता चलता है । इसकी संरचना लगभग 40 फुट ऊंची,80 फुट चौड़ी और 100 फुट लंबी है। गुफाओं के अंदर छोटी छोटी लंबी गुफाऐं है जिनमें अंधेरा रहता है टार्च की रोशनी भी ज्यादा दूर तक नहीं जाती है, स्थानीय लोगां के बताए अनुसार यह बहुत ही लंबी है और कंहा जाकर निकलती है पता नहीं जंगली जानवरों एंव कीडे मकौडों के डर से ज्यादा दूर तक इन गुफाओं में नहीं जाया जा सकता,लंबी गुफाऐं कंही कंही पर बहुत ही सकरी है जिनसे निकलने में बहुत ही परेशानी होती है।
दर्शन करने के लिए बेल लताओं को पकड़ कर चढ़ना पड़ता था
पहले इन गुफाओं में दर्शन करने के लिए बेल लताओं को पकड़ कर चढ़ना पड़ता था लाखों लोग दर्शन करते थे लेकिन कोई भी हादसा कभी नहीं हुआ, वर्तमान में सरकार के द्वारा बेल लताओं को अलग कर सीढ़ी का निर्माण कर दिया गया है। रात्रि में इन गुफाओं में कोई नहीं रहता सभी लोग नीचे कली कंकाली माता की समाधी स्थल के पास रहते है या मेला स्थल पर प्रातःकाल से यंहा दिनभर पूजा अर्चना होती है। गुफाओं के द्वार पर बड़ी मधुमक्खी भौंर के छते झूमर की तरह लटकते थे जो गुफाओं की प्राकृतिक सुंदरता को और बढाती थी, गुफाओं में पूजा के दौरान इतना धुऑ होता है उसके बावजूद मधुमक्खी किसी पर हमला नहीं करती, अगर गुफाओं में किसी प्रकार से किसी के द्वारा गल्ती की जाती है तो मधुमक्खी उसी व्यक्ति पर हमला करती है।
संपादक : हरी सिंह मरावी